देश का गुरूर है ये बेटी

Saina Nehwal

Author :Priti Singh | Date :15 Jun 2016

साइना नेहवाल ने ऑस्ट्रेलियन ओपन सुपर सीरीज में साल का अपना पहला खिताब जीत लिया है। उन्होंने फाइनल मैच में चीन की खिलाड़ी सुन यू को 2-1 से हराया। इस मैच में सुन यू ने उन्हें कड़ी टक्कर दी। 71 मिनट के इस संघर्षपूर्ण मुकाबले में साइना ने अपना पहला सेट गंवा दिया था। इससे भारतीय खेल प्रेमियों को निराशा हुई थी। लेकिन, उनकी निराशा पल भर में तब गायब हो गई जब साइना ने जबरदस्त वापसी करते हुए 21-14 से दूसरा सेट अपने नाम कर लिया। हालांकि, तीसरे सेट में सुन यू ने उन्हें कड़ी टक्कर दी। लेकिन, साइना ने 21-19 से सेट जीत कर खिताब अपने नाम कर लिया। बता दें कि साइना ने अब तक सुन यू के खिलाफ सात मुकाबले खेले हैं जिसमें से छह मैचों में उन्होंने सुन यू को धूल चटाई है।

साइना ने ऑस्ट्रेलियन ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन प्रतियोगिता दूसरी बार जीती है। इससे पहले उन्होंने ये खिताब साल 2014 में अपने नाम किया था। रियो ओलंपिक से पहले साइना की ये जीत उनके लिए मोरल बूस्टर का काम करेगी। इसीलिए इस जीत के मायने और अधिक बढ़ जाते हैं।

साइना की ये जीत हरियाणा के उस समाज को भी चुनौती देती है जो महिलाओं को पुरुषों से कम समझता है। बता दें कि पूरे हरियाणा में सबसे ज्यादा कन्या भ्रूण हत्यायें होती हैं। आज भी वहां लड़कियों का प्रतिशत लड़कों से बेहद कम है। साल 2001 की जनगणना के अनुसार 1 हजार लड़कों पर हरियाणा में महज 819 लड़कियां हैं। यहीं के एक जाट परिवार में जब साइना का जन्म हुआ था तो उनकी दादी ने अपनी पोती का चेहरा देखने से इंकार कर दिया था। कई महीनों तक उन्होंने साइना से खुद को दूर रखा। पोते की चाहत को पोती के जन्म ने आसानी से हजम नहीं किया। लेकिन, साइना के माता-पिता ने उन्हें हमेशा अपनी शक्ति समझा। बैडमिंटन खिलाड़ी माता-पिता ने शुरू से ही साइना को बैडमिंटन खेलने के लिए प्रेरित किया।

साइना को उनकी मां सुबह 4 बजे जगा दिया करती थीं। बचपन में छोटी-सी साइना को नींद से यूं जगना पसंद नहीं आता था। लेकिन, बाद में उन्हें इसकी आदत पड़ गई। स्कूटर से साइना के पिता उन्हें 20 किलोमीटर दूर स्टेडियम ले जाते थे। कई बार नन्हीं साइना स्कूटर के पीछे बैठे-बैठे सो जाती थी। कहीं वो गिर ना जाये ये सोचकर बाद में उनकी मां भी स्कूटर के पीछे बैठकर जाने लगीं। सुबह 6 से 8 बजे की ट्रेनिंग के बाद साइना स्कूल चली जाती थीं। बैडमिंटन के कड़े अभ्यास की वजह से अक्सर साइना के पैरों की मांसपेशियों में दर्द रहता था। उनकी आंखों के नीचे की चमड़ी भी काली हो गई थी। लेकिन, फिर भी उन्होंने अपनी प्रैक्टिस जारी रखी और विश्व बैडमिंटन रैंकिंग में शीर्ष स्थान तक पहुँचीं। उन्होंने बैडमिंटन में चीनी खिलाड़ियों के वर्चस्व को खत्म करते हुए भारतीय चुनौती को जिंदा किया और ओलंपिक खेलों में महिला एकल क्वार्टर फाइनल तक पहुंच कर कांस्य पदक जीतने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं।

महज 26 साल की उम्र में साइना ने कई बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कीं। भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया। पर सच यह है कि साइना ने जितनी मेहनत अपने इस मुकाम को हासिल करने के लिए की है, उससे ज्यादा त्याग उनके माता-पिता ने उन्हें इस मंजिल तक पहुंचाने में किया है। उन्होंने जाट समुदाय की बेटियों के कमतर होने की बात को गलत साबित करके दिखाया है। आज साइना की दादी को भी उन पर गर्व है।

साइना और उनके माता-पिता की ये कहानी हर उस परिवार के लिए मिसाल है जो बेटियों को कम समझते हैं। साइना ने साबित कर दिया है कि अगर हरेक बेटी को उसका परिवार आगे बढ़ने का हौसला दे तो वो किसी भी क्षितिज पर चमक सकती हैं। क्योंकि बेटियां सामर्थ्य और संभावना का दूसरा नाम होती हैं। वो सचमुच शक्ति होती हैं, दुर्गा होती हैं। बेटियां बेटियां होती हैं।

 

बोल बिहार के लिए प्रीति सिंह